भारत में कृषि विपणन
भारत में कृषि विपणन और कीमत नीति
कृषि विपणन, कुल विपणन का एक छोटा प्रतिरूप है इसमें वे सारी क्रियाएँ तथा नीतियों का अध्ययन किया जाता है जो कि किसानों तक पहुँचती हैं तथा किसानों द्वारा उत्पादित उत्पादों को बाजार तक ले जाती है। एक अनुकलतम विपणन हमेशा लागत को कम करता है तथा लाभ को अधिकतम करता है। इस प्रक्रिया में यह भी याद रखा जाता है कि किसानों को उचित प्रतिफल मिले साथ ही उपभोक्ताओं को कम कीमत पर वस्तुएँ मिले और मध्यम वर्ग के आय का कुछ अंश भी बच जाये I
कृषि विपणन, कुल विपणन का एक छोटा प्रतिरूप है इसमें वे सारी क्रियाएँ तथा नीतियों का अध्ययन किया जाता है जो कि किसानों तक पहुँचती हैं तथा किसानों द्वारा उत्पादित उत्पादों को बाजार तक ले जाती है। एक अनुकलतम विपणन हमेशा लागत को कम करता है तथा लाभ को अधिकतम करता है। इस प्रक्रिया में यह भी याद रखा जाता है कि किसानों को उचित प्रतिफल मिले साथ ही उपभोक्ताओं को कम कीमत पर वस्तुएँ मिले और मध्यम वर्ग के आय का कुछ अंश भी बच जाये I
भारत में कृषि विपणन की संरचना:
भारत में कृषि विपणन के अन्तर्गत कृषि विपणन
सहकारी समिति, सार्वजनिक व्यापार और कृषि व्यापार नीति का समावेश है।
कृषि विपणन सहकारी समिति: सहकारी समितियों के सदस्य किसान होते हैं जो कि अपने अतिरेक उत्पादन को संस्थाओं में बेच देते हैं, यदि किसान अपने उत्पादन को समितियों को देते हैं तो समितियां किसानों को वित्तिय व्यवस्था उपलब्ध कराती हैं ताकि किसान अपनी गतिविधियां सुचारु.रूप से चला सकें। यह समितियां अपने सदस्यों तथा गैर.सदस्यों से भी कृषि उत्पादन को एकत्रित करती हैं। इन समितियों को बाजार की जानकारी होती हैं तथा अनुकूल समय आने पर बाजार में बेच देती है। जो कि बाजार स्थिति पर निर्भर है यदि उन्हें लगता है कि भविष्य में कीमत बढ़ सकती है तब ये इन्हें अपने पास संचित रखती हैं । सामान्यतः ये समितियाँ कई गाँवों में अपना अभियान चलाती है इसलिए इनकी गतिविधियाँ प्रभावपूर्ण तथा सफलतम होती हैं।
ये समितियाँ अपनी गतिविधियां अन्य क्षेत्रों में भी संचालित करती हैं जैसे भंडारणों का निर्माण, वित्तिय सहायता प्रदान करना, कृषिउत्पादनों को परिष्कृत करना, आदि, कृषि सहकारी समितियाँ चारस्तरीय हैं प्राथमिक सहकारी समितियाँ प्रारम्भ में, फिर जिले स्तर पर संघीय सहकारी समितियाँ फिर राज्य स्तरीय राज्य विपणन सहकारी समितियाँ और अन्त में देशस्तरीय भारत में राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ एक उच्च संस्था है।
सहकारी विपणन संस्थाओं के कुछ महत्त्वपूर्ण लाभ निम्नलिखित हैं:
1. विपणन समितियाँ एकत्रित मोलभाव करती हैं। किसी एक किसान के पास मोलभाव की कम क्षमता होती है तथा उसे कृषि उत्पाद से अच्छी कीमत नहीं मिलती है लेकिन समितियाँ इस प्रणाली द्वारा बाजार से अच्छी कीमत प्राप्त करती हैं।
2. विपणन समितियाँ किसानों को आकस्मिक वित्त उपलब्ध कराती हैं ताकि वह बाजार से तुलनात्मक कीमत प्राप्त करने के लिए अपनी फसल को अपने पास रख सकें।
3. ये समितियाँ भंडारण की व्यवस्था किसानों को उपलब्ध कराती हैं। तथा फसल बीमा की भी व्यवस्था कराती है ताकि किसानों की क्षति को कम किया जा सके।
4. ये समितियाँ किसानों को बढि़या उत्पादन करने के लिये प्रेरित करती हैं।
5. ये समितियाँ दलालों को समाप्त करती हैं और किसानों को अधिकतम कीमत दिलाने की कोशिश करती हैं।
सहकारी विपणन का विकास
कृषि सहकारी विपणन के दौरान करीब 8 से 10 प्रतिशत तक अतिरेक कृषि उत्पादन को एकत्रित किया जाता है। कुछ महत्त्वपूर्ण फसलो को ही ये समितियाँ एकत्रित करती हैं वे हैं खाद्यान्न, गन्ना, कपास, तिलहन, फल, सब्जियाँ आदि, इसकी परिस्थिति राज्य में अलग अलग हैं। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक और तमिलनाडु में भारत की 80 प्रतिशत कृषि उत्पादन का बाजारीकरण इन समितियों द्वारा किया जाता है। पंजाब, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश और तमिलनाडु में खाद्यान का 75 प्रतिशत व्यापार इन समितियों द्वारा किया जाता है। इस तरह महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश का 75 प्रतिशत गन्ना, महाराष्ट्र और गुजरात का 75 प्रतिशत कपास, का विपणन इन समितियों द्वारा किया जाता है।
कृषि विपणन सहकारी समिति: सहकारी समितियों के सदस्य किसान होते हैं जो कि अपने अतिरेक उत्पादन को संस्थाओं में बेच देते हैं, यदि किसान अपने उत्पादन को समितियों को देते हैं तो समितियां किसानों को वित्तिय व्यवस्था उपलब्ध कराती हैं ताकि किसान अपनी गतिविधियां सुचारु.रूप से चला सकें। यह समितियां अपने सदस्यों तथा गैर.सदस्यों से भी कृषि उत्पादन को एकत्रित करती हैं। इन समितियों को बाजार की जानकारी होती हैं तथा अनुकूल समय आने पर बाजार में बेच देती है। जो कि बाजार स्थिति पर निर्भर है यदि उन्हें लगता है कि भविष्य में कीमत बढ़ सकती है तब ये इन्हें अपने पास संचित रखती हैं । सामान्यतः ये समितियाँ कई गाँवों में अपना अभियान चलाती है इसलिए इनकी गतिविधियाँ प्रभावपूर्ण तथा सफलतम होती हैं।
ये समितियाँ अपनी गतिविधियां अन्य क्षेत्रों में भी संचालित करती हैं जैसे भंडारणों का निर्माण, वित्तिय सहायता प्रदान करना, कृषिउत्पादनों को परिष्कृत करना, आदि, कृषि सहकारी समितियाँ चारस्तरीय हैं प्राथमिक सहकारी समितियाँ प्रारम्भ में, फिर जिले स्तर पर संघीय सहकारी समितियाँ फिर राज्य स्तरीय राज्य विपणन सहकारी समितियाँ और अन्त में देशस्तरीय भारत में राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ एक उच्च संस्था है।
सहकारी विपणन संस्थाओं के कुछ महत्त्वपूर्ण लाभ निम्नलिखित हैं:
1. विपणन समितियाँ एकत्रित मोलभाव करती हैं। किसी एक किसान के पास मोलभाव की कम क्षमता होती है तथा उसे कृषि उत्पाद से अच्छी कीमत नहीं मिलती है लेकिन समितियाँ इस प्रणाली द्वारा बाजार से अच्छी कीमत प्राप्त करती हैं।
2. विपणन समितियाँ किसानों को आकस्मिक वित्त उपलब्ध कराती हैं ताकि वह बाजार से तुलनात्मक कीमत प्राप्त करने के लिए अपनी फसल को अपने पास रख सकें।
3. ये समितियाँ भंडारण की व्यवस्था किसानों को उपलब्ध कराती हैं। तथा फसल बीमा की भी व्यवस्था कराती है ताकि किसानों की क्षति को कम किया जा सके।
4. ये समितियाँ किसानों को बढि़या उत्पादन करने के लिये प्रेरित करती हैं।
5. ये समितियाँ दलालों को समाप्त करती हैं और किसानों को अधिकतम कीमत दिलाने की कोशिश करती हैं।
सहकारी विपणन का विकास
कृषि सहकारी विपणन के दौरान करीब 8 से 10 प्रतिशत तक अतिरेक कृषि उत्पादन को एकत्रित किया जाता है। कुछ महत्त्वपूर्ण फसलो को ही ये समितियाँ एकत्रित करती हैं वे हैं खाद्यान्न, गन्ना, कपास, तिलहन, फल, सब्जियाँ आदि, इसकी परिस्थिति राज्य में अलग अलग हैं। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक और तमिलनाडु में भारत की 80 प्रतिशत कृषि उत्पादन का बाजारीकरण इन समितियों द्वारा किया जाता है। पंजाब, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश और तमिलनाडु में खाद्यान का 75 प्रतिशत व्यापार इन समितियों द्वारा किया जाता है। इस तरह महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश का 75 प्रतिशत गन्ना, महाराष्ट्र और गुजरात का 75 प्रतिशत कपास, का विपणन इन समितियों द्वारा किया जाता है।
भारत में प्राथमिक विपणन सहकारी समितियाँ 6000 है वहीं 160 केन्द्रीय सहकारी समितियाँ जिले
स्तर पर हैं जो कि अधिकतर आस पास की मंडी से संम्पर्क में है, राज्य स्तर पर 29 समितियाँ है।
भारत में कृषि विपणन की समस्याएँ:
भारत में कृषि सुधार में कृषि विपणन भी सुधार की
प्रक्रिया में है। फिर भी कुछ कमियाँ हैं-
1.भंडारण की समस्या: भारत में अभी भंडारण की उचित व्यवस्था नहीं है ताकि किसान अपने उत्पादन कुछ समय के लिए रोक सके। इसके अलावा कृषि, भंडार गृहों में नष्ट हो जाती है। इससे किसानों को बाजार से अपने फसलों की उचित कीमत नहीं मिल पाती है।
2. यातायात की समस्या: भारत में अभी तक कई हजार गाँव सड़क से नहीं जुड़े है या फिर गाँवों का मुख्य सड़कों से सम्पर्क नहीं है। इससे उनके लिए उत्पादन को बाजार ले जाना मुश्किल होता है।
3. विकृत बेचान की समस्या: गरीबी और ऋणग्रस्तता किसानों की फसल को रोकने की क्षमता कम कर देती है। किसानों के लिए आवश्यक हो जाता है कि वह अपनी फसल को कम कीमत पर बाजार पूंजीपतियों के हवाले कर दें, जिससे जल्द से जल्द अपना कर्ज चुका सकें।
4.आधारभूत संरचना की कमी तथा मंडियों में भ्रष्टाचार का बोलबाला: किसानों को अपनी फसल की सही कीमत मिलने के लिए जरूरी होता है कि वह अपनी फसल को सही कीमत पर बेचने के लिए उत्पादक संगठित हों क्योंकि एक तरफ मंडियाँ गाँवों से दूर हैं जहाँ भंडारण की व्यवस्था नहीं है इसलिए उनको पर्याप्त कीमत नहीं मिल पाती है। इसके अलावा बिचैलियै या दलाल उनसे अधिक अंश लेते हैं। इसके आलावा निम्न स्तर उत्पादन का हवाला देकर कुछ कटौतियाँ की जाती हैं जो कि गैर कानूनी हैं।
5. वायदा बाजार से अनियमितता: कुल कृषि विपणन में वायदा कारोबार का आंशिक अंश है इसलिए जरूरी है कि कृषक समुदाय को इसके बारे में समुचित जानकारी दी जाए।
6 बड़े स्तर पर कृषि परिष्करण की कमी: अल्प काल में विनिष्ट होने फसलों के लिए भारत में कृषकीय उत्पादन का परिष्करण का प्रतिशत बहुत कम है। अधिकतर कृषि उत्पादनों को कच्चा माल में बेचा जाता है जिनसे उन्हें कम कीमत प्राप्त होती है।
1.भंडारण की समस्या: भारत में अभी भंडारण की उचित व्यवस्था नहीं है ताकि किसान अपने उत्पादन कुछ समय के लिए रोक सके। इसके अलावा कृषि, भंडार गृहों में नष्ट हो जाती है। इससे किसानों को बाजार से अपने फसलों की उचित कीमत नहीं मिल पाती है।
2. यातायात की समस्या: भारत में अभी तक कई हजार गाँव सड़क से नहीं जुड़े है या फिर गाँवों का मुख्य सड़कों से सम्पर्क नहीं है। इससे उनके लिए उत्पादन को बाजार ले जाना मुश्किल होता है।
3. विकृत बेचान की समस्या: गरीबी और ऋणग्रस्तता किसानों की फसल को रोकने की क्षमता कम कर देती है। किसानों के लिए आवश्यक हो जाता है कि वह अपनी फसल को कम कीमत पर बाजार पूंजीपतियों के हवाले कर दें, जिससे जल्द से जल्द अपना कर्ज चुका सकें।
4.आधारभूत संरचना की कमी तथा मंडियों में भ्रष्टाचार का बोलबाला: किसानों को अपनी फसल की सही कीमत मिलने के लिए जरूरी होता है कि वह अपनी फसल को सही कीमत पर बेचने के लिए उत्पादक संगठित हों क्योंकि एक तरफ मंडियाँ गाँवों से दूर हैं जहाँ भंडारण की व्यवस्था नहीं है इसलिए उनको पर्याप्त कीमत नहीं मिल पाती है। इसके अलावा बिचैलियै या दलाल उनसे अधिक अंश लेते हैं। इसके आलावा निम्न स्तर उत्पादन का हवाला देकर कुछ कटौतियाँ की जाती हैं जो कि गैर कानूनी हैं।
5. वायदा बाजार से अनियमितता: कुल कृषि विपणन में वायदा कारोबार का आंशिक अंश है इसलिए जरूरी है कि कृषक समुदाय को इसके बारे में समुचित जानकारी दी जाए।
6 बड़े स्तर पर कृषि परिष्करण की कमी: अल्प काल में विनिष्ट होने फसलों के लिए भारत में कृषकीय उत्पादन का परिष्करण का प्रतिशत बहुत कम है। अधिकतर कृषि उत्पादनों को कच्चा माल में बेचा जाता है जिनसे उन्हें कम कीमत प्राप्त होती है।
मूल्यांकन:
आज का कृषि विपणन विकट परिस्थति में खड़ा है किसानों को उनके आवश्यकतानुसार सुविधाएँ दी जानी चाहिए। एक पूर्ण विपणन व्यवस्था उपभोक्ता और उत्पादकता दोनों का कल्याण बढ़ा सकती है। इसमें सार्वजनिक निवेश करने की आवश्यकता है। इसके लिए आधारभूत ढ़ांचे में बदलाव की आवश्यकता है तथा परम्परागत विपणन व्यवस्था को उन्नत किया जाना चाहिए।
आज का कृषि विपणन विकट परिस्थति में खड़ा है किसानों को उनके आवश्यकतानुसार सुविधाएँ दी जानी चाहिए। एक पूर्ण विपणन व्यवस्था उपभोक्ता और उत्पादकता दोनों का कल्याण बढ़ा सकती है। इसमें सार्वजनिक निवेश करने की आवश्यकता है। इसके लिए आधारभूत ढ़ांचे में बदलाव की आवश्यकता है तथा परम्परागत विपणन व्यवस्था को उन्नत किया जाना चाहिए।
कृषि कीमत नीति
कृषि कीमत से उत्पादनकर्ता और उपभोक्ताओं पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। यह कीमत प्रणाली एक तरफ उत्पादन को प्रोत्साहन प्रदान करती है वही कृषि उत्पादों की बाजारीकृत बचत को एकत्रित करने की भूमिका निभाती है वही यह संसाधनों के बंटवारे को भी प्रभावित करती है।
भारत में कृषि कीमत प्रणाली की प्रकृति:
कृषि कीमत से उत्पादनकर्ता और उपभोक्ताओं पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। यह कीमत प्रणाली एक तरफ उत्पादन को प्रोत्साहन प्रदान करती है वही कृषि उत्पादों की बाजारीकृत बचत को एकत्रित करने की भूमिका निभाती है वही यह संसाधनों के बंटवारे को भी प्रभावित करती है।
भारत में कृषि कीमत प्रणाली की प्रकृति:
भारत में कृषिगत पदार्थों की कीमतों में
पंचवर्षीय योजनओं से पहले जबरदस्त उठापटक देखी गई लेकिन 1991 के बाद इनकी कीमतें धीरे धीरे ऊपर
बढ़ रही है, कीमतों में अस्थिरता निम्न कारणों
से हो रही है-
1. वर्षा पर निर्भरता: भारत का कृषिगत उत्पादन प्रकृति पर निर्भर करता है। अच्छा मानसून उत्पादन को बड़ा देता है और कम वर्षा या बाढ़ की स्थिति में फसलें बर्बाद हो जाती हैं, जो कि कृषि.उत्पादों पर विपरीत प्रभाव छोड़ती है। अस्थिर प्राकृतिक परिस्थितियों से कृषिगत उत्पादन की मात्रा में असमान्य परिवर्तन देखने को मिलता है। उत्पादन की मात्रा अस्थिरता से इनकी कीमतों में भी अस्थिरता रहती है।
2. कृषिगत उत्पादनों की मांग कीमत बेलोचदार होती है: अर्थात कृषिगत वस्तुओं की मांग कीमत में परिवर्तन की कुछ सीमा तक प्रभावी है। अधिक उत्पादन से कीमत कम हो जाती है लेकिन मांग अधिक नहीं बढ़ती है। इसी तरह अल्प¬उत्पादन में कीमतें अचानक बढ़ जाती है लेकिन मांग वही रहती है।
3. कृषिगत कीमत प्रणाली के उद्देश्य: कृषिगत पदार्थों की कीमतों का स्थिर होना आवश्यक है क्योंकि कीमतें आम आदमी की क्रय क्षमता को प्रभावित करती हैं। तथा आगतों की कीमतें औद्योगिक व्यक्तियों को उपभोक्ताओं की क्रय क्षमता कम होने से औद्योगिक उत्पादनों की मांग भी घटने लगेगी।
1. वर्षा पर निर्भरता: भारत का कृषिगत उत्पादन प्रकृति पर निर्भर करता है। अच्छा मानसून उत्पादन को बड़ा देता है और कम वर्षा या बाढ़ की स्थिति में फसलें बर्बाद हो जाती हैं, जो कि कृषि.उत्पादों पर विपरीत प्रभाव छोड़ती है। अस्थिर प्राकृतिक परिस्थितियों से कृषिगत उत्पादन की मात्रा में असमान्य परिवर्तन देखने को मिलता है। उत्पादन की मात्रा अस्थिरता से इनकी कीमतों में भी अस्थिरता रहती है।
2. कृषिगत उत्पादनों की मांग कीमत बेलोचदार होती है: अर्थात कृषिगत वस्तुओं की मांग कीमत में परिवर्तन की कुछ सीमा तक प्रभावी है। अधिक उत्पादन से कीमत कम हो जाती है लेकिन मांग अधिक नहीं बढ़ती है। इसी तरह अल्प¬उत्पादन में कीमतें अचानक बढ़ जाती है लेकिन मांग वही रहती है।
3. कृषिगत कीमत प्रणाली के उद्देश्य: कृषिगत पदार्थों की कीमतों का स्थिर होना आवश्यक है क्योंकि कीमतें आम आदमी की क्रय क्षमता को प्रभावित करती हैं। तथा आगतों की कीमतें औद्योगिक व्यक्तियों को उपभोक्ताओं की क्रय क्षमता कम होने से औद्योगिक उत्पादनों की मांग भी घटने लगेगी।
भारत में कृषि कीमत प्रणाली के
निम्नलिखित उद्देश्य हैं –
1. कृषि में अधिक निवेश और उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिये वस्तुओं की कीमतों का पूर्वनिर्धारण करना।
2. कीमत इस प्रकार निर्धारण करना कि किसानों पर कहीं विपरित प्रभाव न पड़े।
3. कीमतें इतनी होनी चाहिए कि कृषिगत और गैर.कृषिगत वस्तुओं में व्यापारिक सम्बन्ध बने रहे और संबंध खराब नहीं हाने चाहिए।
4. कीमतें इस तरह होनी चाहिए कि हमें सभी फसलों पर पर्याप्त अनुपात मिल सके।
1. कृषि में अधिक निवेश और उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिये वस्तुओं की कीमतों का पूर्वनिर्धारण करना।
2. कीमत इस प्रकार निर्धारण करना कि किसानों पर कहीं विपरित प्रभाव न पड़े।
3. कीमतें इतनी होनी चाहिए कि कृषिगत और गैर.कृषिगत वस्तुओं में व्यापारिक सम्बन्ध बने रहे और संबंध खराब नहीं हाने चाहिए।
4. कीमतें इस तरह होनी चाहिए कि हमें सभी फसलों पर पर्याप्त अनुपात मिल सके।
संग्रहण कीमत:
कीमत सहायता नीति सरकार द्वारा किसानों को यह
सुनिश्चित करवाना है कि उन्हें एक निश्चित कीमत अवश्य प्राप्त होगी यदि मानसून
अच्छा होता है तब फसल ज्यादा होगी और बाजार कीमत कम होने लगती है इस परिस्थिति में
सरकार किसानों को संग्रहण कीमत द्वारा एक विशेष कीमत अवश्य उपलब्ध, करवाती है। संग्रहण कीमत
में किसानों की लागत के अलावा इसके कुछ लाभ भी शामिल हैं। हर वर्ष संग्रहण
कीमत की घोषणा सरकार कृषिगत लागत और कीमत आयोग के सुझावों के बाद करती है। कृषिगत लागत और कीमत
आयोग भारत सरकार की स्वतंत्रा संस्था है जो सरकार को सतत संग्रहण कीमत के लिए सलाह
देती है। संग्रहण कीमत वह कीमत है जिस पर भारत सरकार रबी और खरीफ फसलों के उत्पादो
को सार्वजनिक संस्थाओं के द्वारा खरीदती
है तथा खरीदी हुए उत्पादों का वितरण सार्वजनिक वितरण प्रणाली के द्वारा करती है।
सामान्यता संग्रहण कीमत बाजार कीमत से कम होती है तथा समर्थन मूल्य से ज्यादा होती
है।
कृषिगत लागत और कीमत आयोग द्वारा
कीमत सुझाव से पहले यह संस्था इस वस्तुओं से सम्बन्धित अर्थव्यवस्था का गहन अध्ययन
करती है। यह भी ध्यान में रखती है कि किसी फसल की कीमत पूरी अर्थव्यवस्था के ढांचे
को प्रभावित न करे तथा विशेष तौर पर, जीवन स्तर, मजदूरी, औद्योगिक लागत आदि को प्रभावित न करे।
इस कीमत प्रणाली में यह ध्यान में रखा जाता है कि किसान को लागत के साथ अन्य प्रोत्साहन भी मिले जिससे कि कृषि में निवेश कम नहीं हो। समर्थन मूल्य की घोषणा फसल बुवाई के समय की जाती है जो कि लागत से ज्यादा होती है। कई वर्षों से समर्थन मूल्य लगातार बढ़ रहा है।
इस कीमत प्रणाली में यह ध्यान में रखा जाता है कि किसान को लागत के साथ अन्य प्रोत्साहन भी मिले जिससे कि कृषि में निवेश कम नहीं हो। समर्थन मूल्य की घोषणा फसल बुवाई के समय की जाती है जो कि लागत से ज्यादा होती है। कई वर्षों से समर्थन मूल्य लगातार बढ़ रहा है।
कीमत नीति का विश्लेषण:
कीमत नीति एक औजार है जिससे कृषिगत
पदार्थों की कीमत सरलीकरण का वातावरण बनाया जाता है। उन्हें प्रोत्साहित भी किया
जाता है ताकि किसान आधुनिक तकनीक से अधिक खाद्यानों का उत्पादन करें। अनुमानित
खाद्यान का सरकार द्वारा वितरण समाज के कमजोर तबके को भोजन की उपलबधता सुनिश्चित
कराता हैI फिर भी, वर्तमान की कीमत नीति में कुछ कमियाँ है जो कि निम्नलिखित हैं -
1. जो फसलें गुणात्मक रूप से अच्छी हैं उन्हें अच्छी कीमत भी मिलनी चाहिए तथा हमें उन फसलों के उत्पादन को बढ़ावा देना चाहिए जो कि विश्वस्तर पर तुलनात्मक सपोषण में श्रेष्ठ हो जिसका हमारी कीमत प्रणाली में कभी ध्यान नहीं दिया गया।
2. पिछले कुछ वर्षों में, संग्रहण कीमत के निर्धारण में विवेकशीलता नहीं झलकती है क्योंकि जहाँ एक तरफ अत्यधिक स्टाक का संग्रहण हुआ है वहीं खाद्यानों की लागत भी बढ़ी है, विशेषतौर पर गेहूँ और चावल के सन्दर्भ में कुछ वर्षों में सरकार गेहूँ और चावल कीमतें कृषिगत लागत और कीमत आयोग के सुझावों से ज्यादा घोषणा करती है।
3. कुछ नये राज्यों में किसान अपनी फसल की निम्नतम कीमत नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं क्योंकि कुछ राज्य सरकार की एजेन्सियाँ इन राज्यों में अपना संग्रहण अभियान नहीं चलाती हैं तथा सामान्यतः कुछ राज्यों में बड़े स्तर पर अभियान चलाती है जैसे पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश।
मूल्यांकन:
1. जो फसलें गुणात्मक रूप से अच्छी हैं उन्हें अच्छी कीमत भी मिलनी चाहिए तथा हमें उन फसलों के उत्पादन को बढ़ावा देना चाहिए जो कि विश्वस्तर पर तुलनात्मक सपोषण में श्रेष्ठ हो जिसका हमारी कीमत प्रणाली में कभी ध्यान नहीं दिया गया।
2. पिछले कुछ वर्षों में, संग्रहण कीमत के निर्धारण में विवेकशीलता नहीं झलकती है क्योंकि जहाँ एक तरफ अत्यधिक स्टाक का संग्रहण हुआ है वहीं खाद्यानों की लागत भी बढ़ी है, विशेषतौर पर गेहूँ और चावल के सन्दर्भ में कुछ वर्षों में सरकार गेहूँ और चावल कीमतें कृषिगत लागत और कीमत आयोग के सुझावों से ज्यादा घोषणा करती है।
3. कुछ नये राज्यों में किसान अपनी फसल की निम्नतम कीमत नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं क्योंकि कुछ राज्य सरकार की एजेन्सियाँ इन राज्यों में अपना संग्रहण अभियान नहीं चलाती हैं तथा सामान्यतः कुछ राज्यों में बड़े स्तर पर अभियान चलाती है जैसे पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश।
मूल्यांकन:
कृषिगत कीमत नीति में सरकार किसानों को कीमत
प्रोत्साहन देती है ताकि किसानों को उचित प्रतिफल सुनिश्चित कर सके तथा देश में खाद्यान
उत्पादन भी बढ़े। कुछ गैर कीमत साधन जैसे अनुकूल तकनीक, वित्तीय आगत, भूमि सुधार, दक्ष मानवीय संसाधन व सभी
महत्त्वपूर्ण साधन है जिनसे कृषि उत्पादकों की वृद्धि और उनकी उत्पादकता भी बढ़
सकती है। जिन राज्यों के पास संसाधनों की कमी है उन्हें अपने गावों में सामाजिक और
आर्थिक ढ़ांचों को मजबूत करना चाहिए न कि वे समाज को अनुदानित कृषिगत आगत प्रदान
करें कीमत प्रणाली एक आशान्वित प्रभाव उत्पादकता पर नहीं छोड़ सकती यदि आधारभूत
संरचना कमजोर है।
Gyan dayak hai sir
ReplyDeleteThank you
gagar me sagar
ReplyDeleteTysm
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
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