आरक्षण : देश के लिए वरदान या अभिशाप
आरक्षण : देश के लिए वरदान या अभिशाप
आरक्षण
उस प्रक्रिया का नाम है जिसमे भारत की सरकार द्वारा सरकारी संस्थानोँ मेँ कुछ
पिछड़ी जातियो के लिए सीटेँ रोक ली जाती है।अर्थात उस स्थान पर केवल एक विशेष जाति
का व्यक्ति ही काम कर सकता है।यह विशेष जातियाँ वह वर्ग है जिन्हे प्राचीन भारत
मेँ निचली जाती का दर्जा दिया जाता था,और इन लोगो को उच्च वर्ग के नीचे उनके आदेशो पर ही
जीवन बसर करना पड़ता था। जिस वजह से वे कभी अपना व अपने परिवार का उद्धार नहीँ कर
पाते थे।
भारत मेँ आरक्षण की शुरुआत ब्रिटिश राज मेँ ही कर दी गई थी।1882
में हंटर कमीशन से शुरू हुई इस आरक्षण प्रणाली का 1932
में अंग्रेजों ने अपनी सत्ता का प्रयोग करते हुए एक सांप्रदायिक
बंटवारे के तहत दलितों और अन्य धर्मों को बांटने के लिए किया था। महात्मा गांधी ने
इसकी कड़ी मुखालफत की, लेकिन अंतत: वह इस मुद्दे पर अंबेडकर
के साथ समझौते के लिए तैयार हो गए। आरक्षण की लड़ाई में संविधान सभा में एक वोट की
कमी से आरक्षण प्रस्ताव पारित नही होने पर डॉ. अम्बेडकर के सामने SC/ST
को आरक्षण देने संबंधी गंभीर समस्या उत्पन्न हो गई थी,
लेकिन आंबेडकर ने अपनी तर्कशक्ति का प्रयोग कर धारा 10
में संशोधन करने में कामयाब रहे, जिसका
परिणाम आरक्षण है।
अंग्रेजोँ का मकसद इसका
इस्तेमाल भारत को जातियोँ के आधार पर बाट कर उस पर शासन करना था और वह इस
प्रक्रिया मेँ सफल भी हुए। परंतु अफसोस की बात यह है कि अंग्रेजोँ के जाने के बाद
भारत के संविधान निर्माताओं ने भी इस नीति पर अमल करना जारी रखा। उनका विचार था कि
इस नीति से भारत की दबी कुचली जातियों का उद्धार होगा।सरकारी नौकरियोँ वह कॉलेज
मेँ अपने लिए सीट आरक्षित कर वे अपना हक पा सकेंगे।परंतु क्या एक वर्ग के बारे मेँ
सोचकर बाकी सभी वर्गो को नजरअंदाज करना सही है? क्या यह प्रक्रिया पूर्ण रुप से
देश के सभी नागरिकोँ के हित मेँ है? आरक्षण का यह विचार
बेरोज़गारी से उत्पन्न हुआ है, आर्थिक-शैक्षिक-सामाजिक रुप
से कमजोंर तबको के लिए बेरोज़गारी एक बड़ी समस्या है। इसी बेरोज़गारी के जंजाल से
बचने के लिए आरक्षण जैसे कई प्रावधान प्रस्तावित किए जाते हैँ जिससे कि लोगोँ को
गरीबी से उभारा जा सके और भारत एक संपन्न राष्ट्र बन सके। परंतु क्या यह सुविधाएँ
असल और पर जरुरतमंद लोगोँ तक पहुंच पाती है? आर्थिक तौर से
पिछड़े लोग अभी भी पीछे ही रह गए हैँ, इन सुविधाओं का लाभ भी
सम्पन्न वर्ग ही उठा रहा है। इसी तरह गुजरात मेँ ‘संपन्न’पटेलोँ का आरक्षण-विस्फोट ना आकस्मिक है और न अंतिम। अगर लोग बड़ी संख्या
मेँ बेरोज़गारी की चपेट मेँ है तो इसका सीधा संबंध जातिगत आरक्षण से नहीँ है,इसका संबंध रोज़गार लुप्प होने से है। मान लीजिए आज भारत मेँ जातिगत
आरक्षण का प्रावधान समाप्त कर दिया जाए और सभी लोग सामान्य श्रेणी मेँ आ जाएं,तो उस हालत में भी रोजगार पाने वालोँ की कुल संख्या मेँ तो कोई वृद्धि
नहीँ होगी। व्यवहार मेँ आर्थिक आरक्षणों का लाभ उच्च और शक्तिशाली जातियों के
सदस्योँ को मिलेगा न कि कमजोर तबको के गरीबो को। किन्हीं गरीबो को मिलेगा इस पर भी
संदेह होना स्वाभाविक है।
विचार करने वाली बात यह भी है
कि जातिगत आरक्षणों ने भारत की हजारोँ वर्षोँ की अमानवीय समाजिकी को भी मानवीय
गरिमा दी है। जिस जातिगत भेदभाव के बारे मेँ सोचकर हम झन्ना उठते थे आज आरक्षण की
मांग कर हम उन्हीं जातियों के आधार पर देश को बॉट रहे हैँ।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि
आरक्षण व्यवस्था का उद्देश्य जाति पर जोर देना नहीं, जाति को खत्म करना था। अमेरिका
जैसे देशों मे भी 'अफरमेटिव एक्शन' के
तहत अश्वेत लोगों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया था, लेकिन
उसके दूरगामी नकारात्मक असर को देखते हुए इसे समाप्त किए जाने की दिशा में
साकारात्मक प्रयास किए जा रहे हैं। अपने मौलिक रूप में जो आरक्षण नीति अपनाई गई थी,
उसे पूरी तरह खारिज करने के लिए यह बहस नहीं है। समय के साथ आरक्षित
वर्ग के भीतर एक अभिजात्य वर्ग ने पैठ जमा ली और सामाजिक न्याय के फायदों को निचले
तबके तक पहुंचने से रोक दिया। अपनी राजनीतिक ताकत का इस्तेमाल करते हुए इस वर्ग ने
आरक्षण की पात्रता पर होने वाली हर बहस को कमजोर किया।
दलित विचारक व चिंतक चंद्रभान
प्रसाद ने कहा कि देश के दलितों के उत्थान की प्रक्रिया में आरक्षण के मुकाबले
मुक्त बाजार व्यवस्था ज्यादा कारगर है। उन्होंने कहा कि आरक्षण की व्यवस्था महज 10% लोगों का
फायदा कर सकती है जबकि मुक्त बाजार व्यवस्था में 90% दलितों
के उत्थान की क्षमता है। 1919 में आई प्रसिद्ध अर्थशास्त्री
जॉन मेनार्ड कींस की पुस्तक 'इकनॉमिक कंसीक्वेंसेस ऑफ पीस'
के हवाले से देश की मौजूदा परिस्थितियों को देखते हुए यह सवाल पूछा
जा सकता है कि आरक्षण को आगे जारी रखने के आर्थिक परिणाम क्या हो सकते हैं?
सार्वजनिक
तौर पर कोई भी आरक्षण के बारे में खुलकर बात नहीं करता। इसे सत्ता लोलुपता कहें या
सत्ता खोने का डर,
समकालीन राजनीतिक परिदृश्य में भी किसी नेता ने आरक्षण के लिए एक नए
सिरे से बहस की हिम्मत नहीं दिखाई है। कुल मिलाकर यह एक राजनैतिक हथकंडा है,
जिसे पार्टियां चुनाव के समय अपनाती है। चूंकि यह मुद्दा सीधे-सीधे
जनाधार और वोट बैंक से जुड़ा है, इसलिए हर राजनीतिक पार्टी
इस मुद्दे पर हमेशा से सावधानी बरतती रही है। वोट बैंक की राजनीति के लिए आरक्षण
का खेल खेलना देश और समाज में अस्थिरता और अव्यवस्था को बढ़ावा देगी। अारक्षण की मांग करना ऐसा है जैसे पूरी दुनिया को लिखित मेँ बताना कि,हाँ मेरे अंदर वह कौशल वह शक्ति नहीँ है कि मैँ बिना किसी प्रावधान के
अपने जीवन की ऊंचाइयोँ को छू सकॅू।
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