भारत में भूमि सुधार
भारत में भूमि सुधार
कृषि कार्यों में भूमि सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है। भूमि के पट्टे का आकार, वितरण तथा स्वामित्व, कृषक की सामाजिक¬आर्थिक स्थिति का निर्धारण करता है। ये सभी कारक, भारत के कृषि की संस्थागत संरचना के महत्त्वपूर्ण भाग हैं। कृषि के संस्थागत संरचना, कृषि उत्पादकता को प्रभावित करती है। भारत में भूमि का स्वामित्व व नियन्त्राण मुट्ठी भर लोगों के हाथ में था जिनका उद्देश्य किराऐदारों से ज्यादा किराया वसूल करना था। जिसके परिणामस्वरूप भारत में कृषि उत्पादकता का लगातार ह्रास हुआ तथा किरायेदारों के शोषण की वजह से उनकी सामाजिक व आर्थिक स्थिति भी लगातार खराब होती गई। भारत में भूमि सुधार, कृषि उत्पादकता बढ़ाने तथा किरायेदारों को शोषण से मुक्त करने के लिए किऐ गये थे।
भूमि सुधार का औचित्य
भारत में जोत का आकार छोटा है तथा साथ ही साथ बिखरा हुआ है। जो कृषि उत्पादन के लिए अलाभकारी है। भारत में भूमि वितरण में भी बहुत असमानता देखने को मिलती है। भारत में भूमि का ज्यादातर भाग कुछ लोगों के स्वामित्व है तथा एक छोटा भाग ही बहुत बड़ी जनसंख्या में वितरित है। एक कृषि सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 63 प्रतिशत किसानों की जोत का आकार 1 हेक्टेयर से कम था। ऐसे कृषक जिनकी जोत का आकार 10 हेक्टेयर से ज्यादा था, केवल 2 प्रतिशत है। ऐसे व्यक्ति या तो जिनके पास या तो बहुत कम जोत थी या जोत थी ही नहीं उनका कुल कृषक परिवारों में 45 प्रतिशत भागीदारी थी। भारत में जमींदारों के रूप में एक शोषक वर्ग भी था जो भूमि के वास्तविक जोतदार से ज्यादा से ज्यादा भूमि लगान वसूल करते थे। भूमि के वास्तविक जोतदार के पास भूमि का स्वामित्व नहीं था तथा भूमि पर एक लगानदारी की भूमिका में काम किया जिसे भूमि से जमींदार के इच्छानुसार कभी भी निष्कासित किया जा सकता था। इससे भूमि के वास्तविक जोतदार की दशा बहुत ही दयनीय थी। इस प्रथा के कारण जोतदारों में भूमि की उत्पादकता बढ़ाने के कोई इच्छाशक्ति भी नहीं थी। भारत में भूमि सुधारों की शुरुआत जोतदार की स्थिति में सुधार करने तथा कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए की गई थी।
भूमि सुधारों के लिए निम्न तर्क दिये जा सकते हैं-
प्रथम , यदि जोतदार ही भूमि का स्वामी है तो उसमें जमीन के प्रति लगाव होता है जो भूमि की उत्पादकता बढ़ाने में सहायक होता है। लगान पर खेती करने वाली कृषकों या मजदूरी पर करने वाले कृषकों में उत्पादन बढ़ाने के लिए इच्छाशक्ति की कमी होती है। एक ऐसा जोतदार, जिसके पास भूमि के पट्टे की सुरक्षा नहीं है तथा जिसे ऊँचा लगान देना पड़ता है, की भूमि में निवेश नहीं करेगा। जिसके परिणामस्वरूप भूमि की उत्पादकता कम बनी रहेगी। यदि भूमि सुधारों द्वारा भूमि का वितरण वास्तविक जोतदार के पक्ष में कर दिया तथा भूमि का स्वामित्व उसे सौंप दिया जाय तो कृषि उत्पादकता को बढ़ाने में मदद मिलेगी।
दुसरे ,ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि सबसे उत्पादक सम्पत्ति होती है। भूमि का स्वामित्व व्यक्ति की सामाजिक व आर्थिक स्थिति का निर्धारण करता है। यह भूमि का वितरण गरीबों के पक्ष में कर दिया जाए तो इससे उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार होगा तथा उन्हें वित्त की सुविधा भी उपलब्ध होगी। यह प्रयास ग्रामीण क्षेत्रों गरीबी व आय असमानताओं को दूर करेगा।
तीसरे , इस आर्थिक पहलू के अलावा, भूमि सुधारों का सामाजिक प्रभाव भी पड़ता है। यदि भूमि स्वामित्व न्यायिक तथा समान हो तो इससे समाज में न्याय व समानता बढ़ती है। एक असमान वितरण, गरीबी व समाजिक तनाव को जन्म देगा। इससे समाज में उपद्रव, अपराधों को बढ़ावा मिलेगा।
चौथे , छोटे व सीमान्त जोत की वजह से भूमि का पूर्ण उपयोग नहीं हो पाता है।
पांचवे ,छोटी जोतों की वजह से वातावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। छोटी जोतों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए उर्वरक व कीटनाशकों का अति.उपयोग किया जाता है जिससे वातावरण प्रभावित होता है। इससे भूमि की उत्पादकता कम होती है। भूमि का ज्यादा सिंचाई से भूमि के अधिक नमकीन होने की सम्भावना बढ़ जाती है।
भूमि सुधार की परिभाषा
भूमि सुधार को ऐसे संस्थागत परिवर्तनों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें भूमि सम्बन्ध वास्तविक जोतदार के पास निर्धारित होते हैं तथा जोत के आकार को, भूमि वितरण द्वारा बढ़ाया जाता है। भूमि सुधार में मुख्यतः दो तरह के परिवर्तन सम्मिलित होते हैं पहला जोतदार तथा कर स्वामी के सम्बन्धों को पुनःर्भाषित करना तथा दूसरा जोत का आकार में परिवर्तन जिसके फलस्वरूप जोत लाभकारी हो जाए। भूमि सुधारों का मुख्य उद्देश्य कृषि वृद्धि को बढ़ावा देना तथा ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक न्याय की व्यवस्था करना है। भूमि सुधार के अन्तर्गत निम्न उपाय सम्मिलित हैं-
1. मध्यस्थों को हटाना
2. लगान सुधार
3. जोत आकार की पुनर्संरचना
1. मध्यस्थों की समाप्ति:
मुख्यतः भूमि पट्टे की व्यवस्था को तीन तरीकों से विभाजित किया जा सकता है। रायतवाड़ी , महलवाड़ी , जमींदारी।
रायतवाड़ी व्यवस्था के अन्तर्गत भूमि के स्वामित्व का अधिकार जोतदार के पास ही होता है तथा वह अपना लगान सीधा सरकार को देता है। जोतदार अपनी सम्पत्ति को पुनः लगान पर दे सकता है।
महलवारी व्यवस्था के अन्तर्गत, किसानों का समूह भूमि का स्वामी होता है। इसमें भूमि किसी एक व्यक्ति की नहीं बल्कि महल की होती है। सभी सम्मिलित रूप से खेती करते है तथा होने वाली आय को बांट लेते हैं। इस व्यवस्था में महल साम्मिलित रूप से लगान चुकाता है।
जमींदारी व्यवस्था के अन्तर्गत एक या कुछ परिवारों के पास एक या कुछ ज्यादा गाँवों की जमींन होती है। तथा परिवार ही सरकार को लगान चुकाते हैं।
इस व्यवस्था की मुख्य समस्या यह थी कि जमींदारों के पास जमीन का स्वामित्व था पर असली जोतदार कोई और था। इन जमींदारों ने उन किसानों से जो लगानदार थे, ज्यादा से ज्यादा लगान वसूल किया तथा शोषण किया। इससे लगानदारों की हालत दयनीय होती चली गयी। इस व्यवस्था के चलते, कृषि उत्पादकता बढ़ाने के कोई प्रयास नहीं किया गया।
ये सभी मध्यस्थ लगभग देश की 40 प्रतिशत खेती योग्य जमीन पर अधिकार प्राप्त किये हुये थे। इस मध्यस्थ प्रथा को समाप्त करने के लिए 1948 से ही विधान बनाकर प्रयास किये गये हैं। मद्रास में सबसे पहले विधान बनाया गया। बाद में अन्य राज्यों ने भी प्रयास किया। मध्यस्थों की समाप्ति किसानों के एक समूह को सरकार के साथ सीधे सम्पर्क में ले आयी। अर्थात् जोतदारों को भूमि का स्वामी बनाया गया था तथा उन्हें लगान सीधे सरकार को देना है।
आलोचनात्मक मूल्यांकन
विधान बनाने व क्रियान्वयन में देरी
जमींदारी उन्मूलन के लिए विधान बनाने में पर्याप्त देरी की गई जिससे जमींदारों को इस बात के लिए समय मिल गया कि वह किसानों को जमीन का हस्तान्तरण न करने के अन्य उपाय कर सकें। विधान के क्रियान्वयन में भी देरी की गई तथा क्रियान्वयन पूरी तरह नहीं किया गया। जमींदारों ने जमीन के कागजात सरकार को सौंपने में देरी की तथा न्यायालय भी गये। जिसमें विधान क्रियान्वयन में देरी हुई।
विधान में कमियाँ
जमींदारी उन्मूलन के लिए लाऐ गऐ विधान में पर्याप्त कमियाँ थी जिसका बड़े जमींदारों ने भरपूर फायदा उठाया। उदाहरण के लिए विधान में यह व्यवस्था थी कि जमींदार स्वयं कृषि के लिए जोतदार से अपनी जमीन वापस ले सकता है। “स्वः जोत” की परिभाषा भी बहुत ज्यादा लचीली थी। इस प्रकार जमींदारों ने ज्यादातर जमीन को वापस ले लिया जिसमें मजदूरों की सहायता से खेती की।
विधान में और भी कमियां थी जिसका जमींदारों ने भरपूर फायदा उठाया। जैसे स्वेच्छा से भूमि का समर्पण। क्योंकि लगानदारों की सामाजिक.आर्थिक हालत बहुत कमजोर थी तो दबाव बनाकर जमींदारों ने भूमि का समर्पण करा लिया जो स्वेच्छा के अलावा सब कुछ था।
2. लगान सुधार
लगान पर कृषि करना भारत में बहुत ही प्रचलित है। इसमें कृषक जमीन को लगान पर लेता है तथा फसल में से एक हिस्सा भूमि के स्वामी को अदा करता है। मुख्यतः दो तरह के लगानदार थे स्थायी लगानदार तथा अस्थायी लगानदार।
स्थायी लगानदार के सम्बन्ध में खेती करने का अधिकार स्थायी था जो पीढ़ी.दर.पीढ़ी चलता था। परन्तु अस्थायी लगानदार को जमींदार कभी भी कृषि भूमि से निष्कासित कर सकता था अस्थायी लगानदारों की दशा ज्यादा दयनीय थी। इनके पट्टे पर असुरक्षा थी तथा जमींदार लगान भी ज्यादा वसूलते थे और बेगार भी लेते थे। सरकार ने विधायी प्रयासों द्वारा इस बात की व्यवस्था की कि लगानदार को पट्टे की सुरक्षा मिले तथा लगान भी बहुत ज्यादा न हो।
लगान सुधारों में निम्न पहलू थे-
लगान की उच्च सीमा: इसमें लगानदार द्वारा दिये जाने वाले लगान की उच्च सीमा निर्धारित कर दी गयी थी। ज्यादातर राज्यों में यह एक चैथाई से पांचवें भाग तक था।
पट्टे की सुरक्षा: लगानदारों को अब जमीन से निष्कासित नहीं किया जा सकता था यदि वे लगान समय पर दे रहे है।
कृषकों को भू-स्वामित्व का हस्तांतरण: उन सभी कृषकों को जो पट्टे पर खेती कर रहे थे, भू-स्वामित्व हस्तांतरण कर दिया गया लेकिन उन्हें भू-स्वामित्व प्राप्त करने के लिए जमींदारों को भूमि का मूल्य चुकाना था।
आलोचनात्मक मूल्यांकन
लगान सुधार में सफलता अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग रही। लगान सुधारों की वजह से बहुत से लगानदारों व मजदूरों को भू-स्वामित्व प्राप्त हुआ है। यद्यपि इसमें भी जमींदारी उन्मूलन का विधानात्मक तथा क्रियान्वयानात्मक कमियाँ रही हैं।
ज्यादातर राजनेता बड़े जमीनदार थे तो उन्होंने भूमि सुधारों को प्रक्रिया को धीमा बनाऐ रखा तथा क्रियान्वयन भी पूरी इच्छाशक्ति से नहीं किया गया। प्रशासनिक सहयोग भी नहीं मिल पाया। जमीनदारों ने दबाव बनाकर लगानदारों से भूमि का स्वैच्छिक समर्पण करा लिया तथा जो किसान भूमि का स्वामित्व लेना चाहते थे उनके पास पर्याप्त आर्थिक संसाधन नहीं थे। इसलिए वे भू-स्वामित्व के अधिकार प्रापत करने में असमर्थ रहे।
लगान की दर में भी ज्यादा कमी नहीं की गई। ज्यादातर राज्यों में अधिकतर भुमि को लगान में लाने की जगह लगान निर्धारण किया गया जो पहले से चले आ रहे लगान के समान ही था।
3. जोत का पुनर्गठन
जोत के पुनर्गठन का उद्देश्य जोतदार के लिए जोत के आकार को प्रभावित करना होता है जिससे कि जोत का आकार बड़ा किया जा सके और जोत लाभदायक हो जाए। यदि जोत का आकार बड़ा है तो आधुनिक तकनीकी का प्रयोग सहज व आसान हो जाता है। जोत के पुनर्गठन के लिए निम्न उपाय किये गऐ -
जोत के आकार की उच्चसीमा: विधान द्वारा यह निश्चित व निर्धारित किया गया कि एक व्यक्ति या परिवार अधिकतम कितनी जोत का स्वामी हो सकता है। इस सीमा से ज्यादा उपलब्ध जोत को अतिरिक्त घोषित कर दिया गया जो छोटे, सीमान्त तथा भूमिहीन किसानों में वितरित कर दी गयी। यद्यपि भूमि की उच्चतम सीमा अलग¬अलग राज्यों में अलग.अलग थी। इसमें कोई समानता नहीं देखने को मिलती है। शुरुआत से ही अतिरिक्त भूमि व उसके वितरण के लिए सरकार ने उद्देश्य निर्धारित किए जिन्हें ज्यादातर प्राप्त नहीं किया जा सका। विधान का क्रियान्वयन भी पूर्ण इच्छाशक्ति से नहीं किया गया।
जोत का संगठन
कृषिकों की जोत छोटी व बिखरी हुई थी। इस बात का प्रयास किया गया कि बिखरी हुई जोतों को इकट्टठा करके एक जगह दे दिया जाए जिससे कृषक की जोत का आकार बड़ा हो सके। क्योंकि भारत में ग्रामीण क्षेत्रा में जनसंख्या बहुत ज्यादा है तथा भूमि पर जनसंख्या दबाव ज्यादा होने से भूमि का लगातार बटवारा हो गया तथा जोत का आकार भी छोटा होता गया।
भूमि के बटबारे के कारण जोत का आकार बहुत छोटा हो गया। छोटी जोत पर कृषि करना बड़ा ही मुश्किल व अलाभदायक हो गया तथा इसके कारण संसाधनों का समुचित उपयोग नहीं किया जा सका। क्योंकि संसाधनों का समुचित उपयोग नहीं हो पा रहा था तो कृषि लागत में वृद्धि हुई। कृषि लागत में वृद्धि का एक और कारण परम्परागत तकनीकी प्रयोग भी रहा। क्योंकि छोटी जोतों पर आधुनिक तकनीकी का प्रयोग बहुत मुश्किल हो गया। इन सभी कारणों से छोटी जोतों पर कृषि अलाभदायक एवं प्रतिकूल असर पड़ा।
नयी तकनीकी जैसे ट्रैक्टर, पम्प सेट तथा आधुनिक सिंचाई सुविधाओं का प्रयोग भी छोटी जोतों पर मुश्किल होता है।
आलोचनात्मक मूल्यांकन
सुधारों का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में भू.स्वामित्व में असमानता में कमी लाना। भूमि पर उपलब्ध आंकड़े स्पष्ट रूप से इंगित करते हैं कि अभी भी भारत में भूमि वितरण में असमानता व्याप्त है तथा भूमि का कुछ एक व्यक्तियों के पास होना ग्रामीण क्षेत्रा में सामान्य बात है। भूमि के पुनर्गठन में धीमी गति के निम्न कारण हैं-
सामाजिक कारण: किसानों में अपनी जोत को लेकर एक भावनात्मक लगाव होता है इसलिए पुनर्गठन में स्वेच्छा से सम्मिलित नहीं होते हैं। क्योंकि भूमि की गुणवत्ता एक जगह से दूसरी जगह अलग-अलग होती है। अतः एक जमीन के बदले में दूसरी जमीन देने में मुश्किलें होती हैं।
रिकार्ड का उपलब्ध न होना तथा प्रशासनिक मशीनरी का दक्ष न होना भी एक और महत्त्वपूर्ण कारण जिसके कारण पुनर्गठन में पर्याप्त सफलता प्राप्त नहीं हुई है।
भ्रष्टाचार: भ्रष्ट प्रशासन ने बड़े जमींदारों से मिलकर भूमि के पुनर्गठन में कठिनाईयाँ उत्पन्न की है। ज्यादातर मामलों में कृषकों ने न्यायालय का सहारा लिया है। कृषक अच्छी भूमि पाने के लिए, न्यायालय तक जाते है जिससे क्रियान्वयन में देरी होती है।
राजनीतिक इच्छा शक्ति का अभाव: सुधारों के क्रियान्वयन में राजनैतिक इच्छा का अभाव देखने को मिलता है।
सुझाव
कानूनी संरचना को मजबूत करना: विधान में उपस्थित कमियों को दूर किया जाना चाहिए। विधान में ऐसी कमियों को जिनकी दोहरी व्याख्या हो सकती है, दूर किया जाना चाहिए। मतभेदों व झगड़ों के जल्दी निवटारों की व्यवस्था की जानी चाहिए। कृषि से सम्बन्धित नियमों को आसान बनाया जाना चाहिए।
भूमि रिकार्ड का कम्प्यूटरीकरण: भारत में भूमि सुधारों के सफल न होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण भूमि रिकार्ड उपलब्ध न होना है। प्रशासनिक मशीनरी को इस बात की व्यवस्था की जानी चाहिए कि भूमि रिकार्ड एकत्रित किया जाए। इस दिशा में कम्प्यूटरीकरण एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। कम्प्यूटरीकरण भूमि रिकार्ड को ज्यादा व्यवस्थित तरीका से उपलब्ध कराता है। यदि भूमि रिकार्ड व्यवस्थित हो तो अनिस्थित भूमि, भू-स्वामित्व की प्रवृत्ति आदि पर महत्त्वपूर्ण जानकारी मिल सकती है जो भू -सुधार में सहायक सिद्ध हो सकता है।
क्योंकि भारत में छोटे, सीमान्त व भूमिहीन किसान ज्यादातर अशिक्षित हैं। उन्हें ज्यादा आधुनिक जानकारी नहीं होती है। उनके पास संसाधनों की भी कमी होती है। जिसके कारण भू.सुधारों के उपाय के बारे में उन्हें ज्यादा जानकारी नहीं होती है। इस सभी समस्याओं को दूर करने के लिए अर्थिक सहायता प्रदान की जानी चाहिए तथा कृषकों को जागरुक बनाया जाना चाहिए।
प्रशासनिक कर्मचारियों को भूमि-सुधारों के उद्देश्य के प्रति ज्यादा संवेदनशील बनाया जाना चाहिए तभी प्रशासनिक कर्मचारी भू-सूधारों को ज्यादा ईमानदारी से क्रियान्वित करेंगे।
व्यक्तियों की भागीदारी: छण्ळण्व्ण्ए व्यक्तियों आदि को भू.सुधारों की प्रक्रिया में भागीदार बनाया जाना चाहिए।
राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी, भू-सुधार के सफल न होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण रहा है। मजबूत राजनीतिक इच्छा शक्ति का विकास किया जाना चाहिए।
निषकर्ष
भारत में भु-सुधारों का इतिहास मिला जुला रहा है। कुछ राज्यों व क्षेत्रों में भू-सुधारों ने सफलता प्राप्त की है परन्तु कुछ अन्य राज्यों तथा क्षेत्रों के बारे ऐसा कहना ठीक नहीं होगा। मध्यस्थों के उन्मूलन में भू-सुधार पूरी तरह से सफल रहे हैं। लेकिन लगान सुधार तथा जोतों के पुनर्गठन के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। कुछ दूसरे मुद्दों का अभी तक समाधान नहीं हो पाया है भूमिहीन मजदूरों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। 1951 में शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों के पास जितनी भूमि थी, उससे ज्यादा भूमि आज उनके पास है। जमींदारों के निहित उद्देश्यों तथा राजनीति व प्रशासन में मजबूती के कारण आगे भूमि सुधारों -और उनके क्रियान्वयन पर नियन्त्रण लगा रखा है।
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