ग्लोबल वार्मिंग और खाद्य आपूर्ति

 

ग्लोबल वार्मिंग पृथ्वी की सतह का दीर्घकालिक ताप है जो पूर्व-औद्योगिक काल (1850 और 1900 के बीच) से मानवीय गतिविधियों, मुख्य रूप से जीवाश्म ईंधन जलने के कारण देखा गया है, जो पृथ्वी के वायुमंडल में गर्मी-फैलाने वाले ग्रीनहाउस गैस के स्तर को बढ़ाता है।

ग्लोबल वार्मिंग का मतलब केवल गर्मी के मौसम में ज्यादा तापमान ही नहीं है. बल्कि इससे पूरे साल भर के मौसम में बदलाव आने के साथ सूखा, बाढ़, भीषण ग्रीष्म लहरें जैसी चरम मौसमी घटनाएं भी देखने को मिलती हैं. इस तरह से जलवायु में समग्र बदलाव को जलवायु परिवर्तन के नाम से जाना जाता है जिसका ग्लोबल वार्मिंग केवल एक पहलू मात्र है. लेकिन इनके नतीजे बड़े व्यापक है और इनमें से एक है और एक बड़ा असर है हमारी खाद्य आपूर्ति पर असर. नए अध्ययन में बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया में वैश्विक खाद्य आपूर्ति साथ ही गेहूं उत्पादन के पर भी बहुत ज्यादा विपरीत असर पड़ेगा.

टफ्ट्स यूनिवर्सिटी के फ्रीडमैन स्कूल ऑफ न्यूट्रिशन साइंस एंड पॉलिसी में किए गए एक अध्ययन के कारण इस समस्या ने ध्यान आकर्षित किया है। विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस बात की अधिक संभावना है कि गंभीर तापमान फसल उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव डालेगा।रिपोर्ट यह स्पष्ट करती है कि सबसे अधिक प्रभाव चीन और भारत सहित गेहूं का उत्पादन करने वाले देशों में महसूस किया जाएगा। अध्ययन के प्राथमिक लेखक, एरिन कॉगलन डी पेरेज़ के अनुसार, हम 1981 की तुलना में अधिक बार गर्मी की लहरों का अनुभव करेंगे, जो पहले हर सौ वर्षों में केवल एक बार देखी जाती थीं।ये ऐसे परिदृश्य हैं जिनकी भविष्यवाणी की गई है, और हमें उनके लिए तैयार रहने की आवश्यकता है। हमें अभी तक उनका अनुभव करने का मौका भी नहीं मिला है। भविष्य हमें अतीत के बारे में सटीक रूप से नहीं बता सकता जैसा वह था।

अध्ययन में साफ तौर पर कहा गया है कि भारत और चीन जैसे गेहूं उत्पादक देशों पर इसका सबसे ज्यादा असर देखने को मिलेगा. अध्ययन के प्रमुख लेखक एरीन कॉगलेन डि पेरेज का कहना है कि जिस तरह की ग्रीष्म लहरें 1981 में चली थीं जो पहले हर सौ सालों में एक बार देखने को मिलती थीं, ज्यादा दिखेंगी.

एरीन ने बताती है कि इस तरह की ग्रीष्म लहरें मध्य पश्चिमी अमेरिका में हर छह साल में और उत्तर पूर्वी चीन में हर 16 साल में देखने को मिलेंगी. ये ऐसे हालात का अनुमान हैं जिनके लिए हमें तैयारी करनी होगी. जबकि अभी तो हमने उन्हें अनुभव भी नहीं किया है. ऐतिहासिक रिकॉर्ड अब बिलकुल ऐसा नहीं रह गया है जो भविष्य की स्थिति बता सके.

संयुक्त राष्ट्र चिंतित है कि जलवायु परिवर्तन भारत के लिए पर्याप्त उत्पादन करना कठिन बना सकता है, जिससे खाद्य आपूर्ति में बड़ी गिरावट आ सकती है। विशेषज्ञों के एक पैनल ने चेतावनी दी है कि अगर ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित नहीं किया गया तो भारत के खाद्य उत्पादन में भारी गिरावट आ सकती है। महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा है कि वह जी 20 से  वार्मिंग 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड कम करने के लिए एक समझौते का आग्रह कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने को एक रिपोर्ट में कहा,तापमान में 1 से 4 डिग्री सेंटीग्रेड तक की वृद्धि होने पर भारत में चावल का उत्पादन 10 से 30 प्रतिशत तक घट सकता है, जबकि मक्के का उत्पादन 25 से 70 प्रतिशत तक घट सकता है।

ग्लोबल वार्मिंग से उत्पन्न जलवायु परिवर्तन ने खाद्य और जल सुरक्षा को बदतर बना दिया है. 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान बढ़ने से   स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव आ चुका है नतीजतन क्लाइमेट जोन तेजी से बदल रहे हैं परिणामस्वरूप कृषि और पशुधन उत्पादकता को प्रभावित कर रहा है।  गर्म हो रहे महासागर, जो भूमि से अधिक गर्मी को अवशोषित करते हैं, मछली पालन और जलीय कृषि की उत्पादकता को प्रभावित करेंगे इस तरह की अत्यधिक मौसम की घटनाओं और समुद्र के स्तर में वृद्धि के साथ, यह भोजन तक पहुंचने में असमानता को भी बढ़ाएगा और जो गरीबी में बढ़ोतरी करेगा . इसका सबसे ज्यादा असर  अफ्रीका, एशिया और सेंट्रल और साउथ अमेरिका में देखा जा रहा है.

चार प्रमुख फ़सलें- गेहूं, चावल, मक्का और सोयाबीन – दुनिया की आधी कैलोरी प्रदान करती हैं. अपरिवर्तनीय जलवायु के मुक़ाबले जलवायु परिवर्तन के मौज़ूदा मॉडल के चलते इन फसलों की पैदावार में 20-40 प्रतिशत, गेहूं में 5-50 प्रतिशत, चावल में 20-30 प्रतिशत और सोयाबीन में 30-60 प्रतिशत की गिरावट की चेतावनी दी जा रही है. तापमान बढ़ने से  खाद्य पदार्थो की पोषण गुणवत्ता भी कम हो जाती है, इसलिए पोषण के उसी लाभ को पाने के लिए इंसानों को अधिक अनाज की आवश्यकता होगी. बढ़ती आबादी के साथ उपज में कमी और कम पोषण से ग़रीबी बढ़ेगी, भूमि पर अधिक दबाव पैदा होगा और जलवायु शमन से समझौता करने की मज़बूरी पैदा होगी.  एक तिहाई वैश्विक मानवजनित जीएचजी उत्सर्जन

इसके साथ ही खाद्य प्रणालियों का पर्यावरणीय प्रभाव भी पड़ता है. लगभग 50 प्रतिशत बर्फ – और रेगिस्तान-मुक्त भूमि का उपयोग भोजन उगाने के लिए किया जाता है, जिसमें 73 प्रतिशत वनों की कटाई और 80 प्रतिशत जैव विविधता का नुकसान खाद्य प्रणालियों से जुड़ी है, जो 70 प्रतिशत पानी का उपयोग करती है और 80 प्रतिशत जल प्रदूषण का कारण बनती है. खाद्य प्रणालियां  से लगभग  एक तिहाई वैश्विक मानवजनित   जीएचजी  उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार हैं. कृषि और पशुधन मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड के माध्यम से कार्बन उत्सर्जन पैदा करते हैं, जो अवशेषों में फर्मेंटेशन के साथ-साथ सिंथेटिक उर्वरकों और चावल के खेतों से भी उत्पन्न होता है. यह कुल जीएचजी उत्सर्जन में 10-14 प्रतिशत का हिस्सेदार होता है,   लैंड यूज़ में बदलाव मुख्य रूप से वनों की कटाई और कृषि के लिए पीटलैंड के नष्ट होने की वज़ह से  5-14 प्रतिशत उत्सर्जन में योगदान देता है. वनों की कटाई जंगली जानवरों से पशुओं और मनुष्यों तक जूनोटिक बीमारियों के फैलने का कारण भी बनती है. आख़िर में, फूड प्रोसेसिंग, ट्रांसपोर्ट और ख़पत मिलकर जीएचजी उत्सर्जन में 5-10 प्रतिशत का योगदान करते हैं.

अध्ययन मे इस बात पर विशेष ध्यान दिलाने का प्रयास किया है कि गेंहू सर्दियों की फसल है और 27.8 डिग्री सेल्सियस से अधिक का तापमान में फसल दबाव में आ जाती है और 32.8 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा के तापमान में एनजाइम गेहूं को खराब करने लगते हैं. लेकिन शोध ने खुलासा किया है कि जिस तरह से चरम तापमान बार बार आ रहे हैं गेहूं की फसल को खासा नुकासान होगा.

हालात और खराब करने के लिए चरम तापमान के साथ रिकॉर्ड तोड़ सूखे के हालात भी देखने को मिल रहे हैं. इन दोनों प्रभावों से पैदावारों में खासी कमी देखने को मिलेगी. अमेरिका और चीन दुनिया के सबसे बड़े अनाज उत्पादक देश हैं. यहां लगातार फसलों के खराब होने का सीधा असर वैश्विक खाद्य कीमतों और आपूर्ति पर पड़ेगा. लेकिन जिस तरह से हालात लगातार बदतर हो रहे हैं. हमें विपरीत हालात का इंतजार करने की जगह उनसे निपटने की तैयारी करनी होगी.

ग्लोबल वार्मिंग और भारत

जिस खतरे को कभी सम्भावना और आशंका बताई जा रही थी, वह आज एक हकीक़त के रूप में देश के खेतों पर उतर आई है। भारत भी ग्लोबल वार्मिंग नामक नियंत्रण आपदा की चपेट में है। सूखे के बढ़ते प्रकोप से लेकर आकस्मिक बाढ़, कड़ाके की शीतलहरी, तापमान में अचानक उतार-चढ़ाव, बेमौसमी ओलावृष्टि और मूसलाधार बारिश जैसी आपदाओं का बढ़ते तापमान के साथ गहरा जुड़ाव देखा जा रहा है।

यूँ तो इन आपदाओं का असर जनजीवन से जुड़े सभी पहलुओं पर पड़ता है, परन्तु कृषि पर पड़ने वाला इसका तीखा प्रभाव जहाँ एक ओर किसानों की हालत दयनीय बना देता है, वहीं देश की खाद्य सुरक्षा को भी कमजोर करता है। नई दिल्ली स्थित प्रख्यात भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान ने अन्तरराष्ट्रीय अध्ययनों के हवाले से बताया है कि 2020 तक भारत के औसत तापमान में 1.0 से 1.4 डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है।

यदि इस विपदा पर काबू पाने में कोई विशेष सफलता नहीं मिली तो 2050 तक 2.2 से 2.9 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ सकता है। तापमान में बढ़ोत्तरी के साथ वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की भी मात्रा बढ़ेगी, जिसका फ़सलों की पैदावार पर निश्चित रूप से प्रभाव पड़ेगा।

देश के कृषि मौसम के हिसाब से देखें तो रबी यानि सर्दियों के मौसम में तापमान में ज्यादा बढ़ोत्तरी होगी, जबकि खरीफ यानी मानसूनी मौसम में तापमान में अपेक्षाकृत कम वृद्धि होगी। इसका सबसे पहला और सीधा असर बरसात पर पड़ेगा। खरीफ में देश के ज्यादातर भागों में वर्षा बढ़ने की आशा है, जबकि रबी के दौरान कुछ क्षेत्रों में बरसात कम हो जाएगी।

हमारे देश का लगभग 60 प्रतिशत फसल क्षेत्र अभी भी बारानी यानी असिंचित है। इन क्षेत्रों में उगाई जा रही फसल सिंचाई के लिये वर्षा पर निर्भर रहती हैं, इसलिये वर्षा की मात्रा में हेरफेर होने से पैदावार पर चोट पड़ेगी। विश्व बैंक ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि भारत में भूजल की दशा भी कमजोर और शोचनीय है, इसलिये फसलों पर वर्षा की कमी के गम्भीर प्रभाव पड़ेंगे।

रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों में पानी कम होने से करोड़ों लोगों की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। वैज्ञानिक अध्ययन कहते हैं कि 10 से 15 वर्षों के भीतर पड़ने वाले प्रभावों को चार से छह प्रतिशत के दायरे में बाँधा जा सकता है, जबकि दीर्घकालीन प्रभाव 25 प्रतिशत तक पहुँच सकते हैं।

अनुमान लगाया जा सकता है कि इससे देश की खाद्य सुरक्षा पर कितनी गहरी चोट पड़ने की सम्भावना है। देश की खाद्य सुरक्षा के आधार कहे जाने वाले गेहूँ की बात करें तो तापमान में मात्र एक डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी से गेहूँ के उत्पादन में लगभग 60 लाख टन की कमी आ सकती है, जबकि 5.0 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी लगभग पौने-तीन करोड़ टन की भारी गिरावट ला सकती है।

अनुमान लगाया गया है कि यदि तापमान का बढ़ना इसी प्रकार से बेरोकटोक जारी रहा तो सन् 2050 तक गेहूँ के कुल उत्पादन में लगभग 1 करोड़ 17 लाख टन की कमी आ सकती है। इसी प्रकार अनुमान लगाया गया है कि सन् 2030 में चावल का उत्पादन हरियाणा में आठ प्रतिशत, पंजाब में लगभग सात प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में लगभग चार प्रतिशत और बिहार में लगभग ढाई प्रतिशत तक गिर सकता है।

इसका चावल के कुल उत्पादन पर गहरा असर पड़ेगा। दक्षिण भारत के राज्यों के लिये ये अनुमान और ज्यादा डराने वाले हैं, तमिलनाडु में सन् 2050 में चावल की पैदावार में लगभग 15 प्रतिशत की गिरावट होने की आशंका जताई गई है जो सन् 2080 तक बढ़कर लगभग 28 प्रतिशत पहुँच सकती है।

वैज्ञानिक रिपोर्टों में बताया गया है कि तापमान बढ़ने से गेहूँ और चावल की गुणवत्ता पर भी बुरा असर पड़ेगा। तमिलनाडु में अन्य प्रमुख फ़सलों पर भी इस प्रकार के अध्ययन किये गए और अनुमान जताया गया है कि सन् 2050 तक यहाँ उपज में औसतन 9 से 22 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की जा सकती है।

दक्षिण भारत की बात चली है तो नारियल की बात भी करनी होगी, जो यहाँ की एक प्रमुख फसल है और लोगों के खान-पान से सीधे जुड़ी है। पश्चिम तटीय राज्यों जैसे केरल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और कर्नाटक में नारियल की फसल पर जलवायु परिवर्तन का अच्छा प्रभाव पड़ेगा, जबकि पूर्वी तटीय क्षेत्रों में प्रतिकूल असर होगा।

कुल मिलाकर सन् 2050 तक नारियल की पैदावार में 10 प्रतिशत की वृद्धि होने की सम्भावना जताई गई है। एक अन्य प्रमुख खाद्य फसल आलू में अनुमान लगाया गया है कि पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी व मध्य उत्तर प्रदेश में सन् 2030 तक इसके उत्पादन में लगभग साढ़े-तीन से सात प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है लेकिन शेष भारत में विशेष रूप से पश्चिम बंगाल और पठारी भागों में आलू का उत्पादन 4 से 16 प्रतिशत तक गिर सकता है।

पोषण सुरक्षा पर असर

देश की पोषण सुरक्षा से जुड़े फलों की बात करें तो तापमान बढ़ने से हिमाचल प्रदेश में सेब के उत्पादन और उत्पादकता में कमी आई है। दरअसल, इस प्रदेश में अब सेब को लम्बे समय तक उतना कम तापमान नहीं मिल पाता, जितनी इसको जरूरत होती है। इसीलिये अब सेब का उत्पादन अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों की ओर खिसकता जा रहा है।

मैदानी भागों में आम का उत्पादन भी प्रभावित हो रहा है। अधिक तापमान के कारण आम के पेड़ों पर फरवरी-मार्च के महीनों में ही बौर आ जाती है, जो इस दौरान चलने वाली तेज हवाओं के कारण झड़ भी जाती है। इसका नतीजा कुल पैदावार में कमी के रूप में सामने आता है।

सागरों से मिलने वाली विविध प्रकार की मछलियाँ तथा अन्य जीव भी देश की खाद्य सुरक्षा में एक अहम भूमिका निभाते हैं, परन्तु इनके अस्तित्त्व पर भी बढ़ते तापमान का खतरा मँडरा रहा है। अनुमान है कि सन् 2100 तक भारतीय सागरों की सतह का तापमान तीन डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है।

वैज्ञानिकों ने सम्भावना जताई है कि इससे मछलियों की अंडा देने की क्षमता तथा उनका आवास प्रभावित हो सकता है, जिससे मछलियों की कुल संख्या में भी गिरावट आ सकती है। हालांकि यह सम्भावना भी जताई गई है कि कुछ क्षेत्रों में इसका अच्छा प्रभाव भी पड़ सकता है।

सागरों के अलावा विभिन्न नदियों में भी मछलियों के आवास और इनकी संख्या पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की सम्भावना जताई जा रही है। बढ़ते तापमान के कारण दुधारू पशुओं की उत्पादकता पर भी बुरा असर पड़ने की आशंका है। अनुमान है कि सन् 2020 तक देश के कुल दुध उत्पादन में 16 लाख टन और 2050 तक डेढ़ करोड़ टन की गिरावट आ सकती है।

कृषि वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिंग के प्रति जागरूक, सतर्क और सचेत हैं। भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद के नेतृत्व में ‘क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर’ विकसित करने की पहल की गई है, जिसके आशाजनक नतीजे सामने आने लगे हैं। इसके अन्तर्गत किसानों को जलवायु अनुकूल कृषि तकनीक अपनाने के लिये जागरूक तथा सक्षम बनाया जा रहा है।

आशा है कि ग्लोबल वार्मिंग पर अंकुश लगाने के उपायों के साथ इसका सामना करने की तकनीकों को अपनाने से हमें इसके बुरे प्रभावों को कम करने में कामयाबी मिलेगी।


 

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