हरित सकल घरेलू उत्पाद
हरित सकल घरेलू उत्पाद (Green GDP)
हरित सकल घरेलू उत्पाद या ग्रीन जीडीपी (Green GDP) पर्यावरण के लिये लाभप्रद एवं हानिकारक, दोनों तरह के उत्पादों और उनके सामाजिक मूल्य का लेखा-जोखा है। यह उत्पादों के पर्यावरणीय प्रभाव के आधार पर उनके वर्गीकरण तथा सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के आपूर्ति एवं उपयोग तालिका का प्रयोग कर डेटा संग्रहण एवं विश्लेषण की एक पद्धति पर आधारित है। ग्रीन जीडीपी (Green GDP) की गणना सकल घरेलू उत्पाद से शुद्ध प्राकृतिक पूंजी खपत को घटाकर की जाती है। इसमें संसाधनों की कमी, पर्यावरण क्षरण और पर्यावरण संरक्षण गतिविधियां शामिल हैं। इन गणनाओं का उपयोग शुद्ध घरेलू उत्पाद (एनडीपी) के लिए भी किया जा सकता है, जो सकल घरेलू उत्पाद से पूंजी मूल्यह्रास घटाता है। चूंकि राष्ट्रीय खाते इस तरह से व्यक्त किए जाते हैं, इसलिए किसी भी संसाधन निष्कर्षण गतिविधि का मौद्रिक मूल्य में अनुवाद करना हमेशा आवश्यक होता है।
ग्रीन जीडीपी एक संकेतक है जो किसी देश के पारंपरिक जीडीपी से प्राकृतिक संसाधनों की कमी और पर्यावरणीय क्षति की लागत का घटाव करता है। इसे पर्यावरणीय रूप से समायोजित घरेलू उत्पाद (environmentally adjusted domestic product) के रूप में भी जाना जाता है। ग्रीन जीडीपी दर्शाता है कि किसी देश का आर्थिक विकास कितना संवहनीय है और यह उसके लोगों की रहन-सहन को कैसे प्रभावित करता है।
ग्रीन जीडीपी प्राकृतिक संसाधनों और पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं के मूल्यांकन को शामिल करती है, जो आमतौर पर पारंपरिक जीडीपी गणनाओं में बाह्य कारण (externalities) होते हैं। इन पर्यावरणीय कारकों के आर्थिक मूल्य की मात्रा निर्धारित करने से, यह आर्थिक गतिविधियों की वास्तविक लागतों एवं लाभों का अधिक सटीक मापन प्रदान करता है। ग्रीन जीडीपी आर्थिक आकलन में पर्यावरणीय कारकों पर स्पष्ट रूप से विचार करते हुए सतत् विकास लक्ष्यों की अवधारणा के साथ संरेखित होती है। यह नीति निर्माताओं को आर्थिक विकास एवं पर्यावरणीय स्थिरता के बीच के समंजन (trade-offs) को बेहतर ढंग से समझने की अनुमति देता है, जिससे अधिक सूचना-संपन्न नीतियों एवं रणनीतियों के निर्माण में सुगमता होती है।
लगातार बढ़ती आबादी ,औद्योगिक क्रांति का बढ़ता दबाव और बढ़ते प्रदूषण के चलते जिस तरह जलवायु परिवर्तन हो रहा है उससे दुनिया पर सतत और हरित विकास की ओर बढ्ने का दबाव बढ़ रहा है| वर्ष 2011 मे नैरोबी मे संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के रिपोर्ट के अनुसार अगर पूरी दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद का सिर्फ दो फीसदी हिस्सा सिर्फ दस अहम क्षेत्रों मे खर्च किया जाए तो दुनिया हरित अर्थव्यवस्था की ओर आसानी से चल परेगी |
हरित अर्थव्यवस्थाएं वे हैं जिनमें विकास सार्वजनिक और निजी निवेशों द्वारा संचालित होता है जो कार्बन उत्सर्जन और प्रदूषण को कम करते हैं, ऊर्जा और संसाधन दक्षता में वृद्धि करते हैं, और जैव विविधता के नुकसान को रोकते हैं। हमारा जीवन और विकास लगभग हर तरह से हरित अर्थव्यवस्थाओं से प्रभावित है।हरित अर्थव्यवस्था में रोजगार और आय की वृद्धि ऐसी गतिविधियों, बुनियादी ढांचे और परिसंपत्तियों में सार्वजनिक और निजी निवेश से प्रेरित होती है जो कार्बन उत्सर्जन और प्रदूषण को कम करती हैं, ऊर्जा और संसाधन दक्षता में सुधार करती हैं, और जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के नुकसान को कम करती हैं।
ग्रीन जीडीपी का महत्त्व
पर्यावरणीय मूल्यांकन (Environmental Valuation): ग्रीन जीडीपी प्राकृतिक संसाधनों और पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं के मूल्यांकन को शामिल करती है, जो आमतौर पर पारंपरिक जीडीपी गणनाओं में बाह्य कारण (externalities) होते हैं। इन पर्यावरणीय कारकों के आर्थिक मूल्य की मात्रा निर्धारित करने से, यह आर्थिक गतिविधियों की वास्तविक लागतों एवं लाभों का अधिक सटीक मापन प्रदान करता है।
संवहनीयता (Sustainability): ग्रीन जीडीपी आर्थिक आकलन में पर्यावरणीय कारकों पर स्पष्ट रूप से विचार करते हुए सतत् विकास लक्ष्यों की अवधारणा के साथ संरेखित होती है। यह नीति निर्माताओं को आर्थिक विकास एवं पर्यावरणीय स्थिरता के बीच के समंजन (trade-offs) को बेहतर ढंग से समझने की अनुमति देता है, जिससे अधिक सूचना-संपन्न नीतियों एवं रणनीतियों के निर्माण में सुगमता होती है।
नीतिगत प्रासंगिकता (Policy Relevance): ग्रीन जीडीपी आर्थिक प्रदर्शन की एक व्यापक तस्वीर प्रदान करके (पर्यावरणीय आयाम सहित) नीति निर्माताओं को संसाधनों को प्रभावी ढंग से प्राथमिकता प्रदान करने और आवंटित करने में मदद करती है। यह उन क्षेत्रों और गतिविधियों की पहचान करने में सक्षम बनाती है जिनका महत्त्वपूर्ण पर्यावरणीय प्रभाव होता है; यह सतत् विकास लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये लक्षित हस्तक्षेपों एवं विनियमों का मार्गदर्शन करती है।
संसाधन प्रबंधन (Resource Management): ग्रीन जीडीपी प्राकृतिक संसाधनों की कमी को उजागर करती है और उनके सतत् प्रबंधन को प्रोत्साहित करती है। संसाधनों के आर्थिक मूल्य की पहचान कर, यह उनके संरक्षण एवं कुशल उपयोग को बढ़ावा देती है, जिससे संसाधन आवंटन में सुधार होता है और पर्यावरणीय गिरावट में कमी आती है।
ग्रीन जीडीपी के कार्यान्वयन में चुनौतियाँ
डेटा उपलब्धता और विश्वसनीयता (Data Availability and Reliability): पर्यावरणीय लागत, लाभ और प्राकृतिक संसाधन मूल्य पर अविश्वसनीय डेटा के कारण हरित जीडीपी की गणना करना कठिन है। अनुमान में धारणाएँ एवं व्यक्तिपरक निर्णय शामिल होते हैं, जो विश्वसनीयता एवं तुलनीयता (comparability) को प्रभावित करते हैं।
मूल्य समनुदेशन (Value Assignments): पर्यावरणीय वस्तुओं एवं सेवाओं का मौद्रिक संदर्भ में मूल्य निर्धारण एक विवादास्पद विषय रहा है। आलोचकों का तर्क है कि पर्यावरण के कुछ पहलुओं, जैसे कि जैव विविधता या सांस्कृतिक विरासत, का अंतर्निहित मूल्य होता है जिसे आर्थिक मूल्यांकन विधियों द्वारा पर्याप्त रूप से ग्रहण नहीं किया जा सकता है। पर्यावरण को आर्थिक मूल्य प्रदान करने की प्रक्रिया को अत्यधिक सरलीकरण और वस्तुकरण प्रकृति का माना जा सकता है।
जटिलता और संकेतक (Complexity and Indicators): ग्रीन जीडीपी गणना करने के लिये एक कठिन संकेतक है क्योंकि इसमें सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय कारक शामिल होते हैं। इन कारकों के संयोजन के लिये कोई सहमत तरीका मौजूद नहीं है और सही संकेतक चुनना चुनौतीपूर्ण है।
नीति कार्यान्वयन और समंजन (Policy Implementation and Trade-offs): ग्रीन जीडीपी उपयोगी है, लेकिन इसे नीतियों में रूपांतरित करना कठिन हो सकता है। नीतियों की सफलता के लिये हमें सहयोग, राजनीतिक समर्थन और बाधाओं को दूर करने की आवश्यकता है। इसके अलावा, आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण को संतुलित करना जटिल है और यह स्थिति के अनुसार बदलता रहता है, इसलिये केवल ग्रीन जीडीपी पर आधारित सार्वभौमिक नीतियाँ बनाना कठिन है।
भारत और ग्रीन GDP
भारत में ग्रीन जीडीपी का आधिकारिक तौर पर मापन या रिपोर्टिंग नहीं की जाती है, लेकिन विभिन्न शोधकर्त्ताओं और संस्थानों द्वारा इसका अनुमान लगाने के कुछ प्रयास किये गए हैं। अक्तूबर 2022 में भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा प्रकाशित एक पत्र के अनुसार शोधकर्त्ताओं ने अनुमान लगाया कि वर्ष 2019 के लिये भारत की ग्रीन जीडीपी लगभग 167 ट्रिलियन रुपए की थी। यह उसी वर्ष 185.8 ट्रिलियन रुपए के पारंपरिक जीडीपी से 10 प्रतिशत की कमी को प्रकट करता है।
भारत में न केवल प्राकृतिक पूंजी को जीडीपी में मामूली अहमियत दी जाती है, बल्कि प्राकृतिक संसाधनों को पर्याप्त रूप से आर्थिक परिसंपत्तियों के तौर पर नहीं माना जाता है और इसके साथ ही आर्थिक विकास दर का आकलन करते वक्त प्राकृतिक संसाधनों में कमी और उनके क्षरण की पर्यावरणीय लागत को उसमें समायोजित नहीं किया जाता है। पारंपरिक जीडीपी अनुमानों में समायोजित नहीं किए जाने वाले आर्थिक विकास के बाह्य प्रभावों का मौद्रिक मूल्य कभी-कभी बहुत ज्यादा भी हो सकता है। उदाहरण के लिए, विश्व बैंक के एक अध्ययन से पता चला है कि वर्ष 2013 में भारत को महज वायु प्रदूषण के चलते 550 अरब डॉलर से भी अधिक राशि या जीडीपी के 8.5 प्रतिशत का भारी नुकसान उठाना पड़ा था। इसी तरह जल प्रदूषण, भूमि क्षरण इत्यादि के रूप में पड़ने वाले अन्य प्रभावों की आर्थिक लागत या नुकसान, जो अभी ज्ञात नहीं है, भी संभवत: बहुत अधिक बैठेगा।
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की ‘लिविंग प्लैनेट’ रिपोर्ट के अनुसार, भारत की कुल भूमि का लगभग 25 प्रतिशत मरुस्थलीकरण से प्रभावित या त्रस्त है, जबकि 32 प्रतिशत भूमि को क्षरण का सामना करना पड़ रहा है। इस तरह के पर्यावरणीय परिवर्तनों का भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था की भावी खाद्य उत्पादन क्षमता पर सीधा प्रभाव पड़ता है। भारत में सदी के अंत तक फसल पैदावार में 10 से 40 फीसदी तक का भारी नुकसान होने का अंदेशा है (दत्ता और सुरभि, 2016)। वर्ष 1947 से लेकर वर्ष 1997 तक की अवधि के दौरान भारत में आर्थिक विकास के साथ-साथ हुए पर्यावरणीय परिवर्तनों के कारण समाज की बिगड़ी दशा पर टिप्पणी करते हुए ऊर्जा और संसाधन संस्थान (टेरी) ने अपने द्वारा तैयार की गई एवं वर्ष 2009 में जारी की गई ‘ग्रीन इंडिया 2047’ नामक रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया है कि अशुद्ध हवा एवं जल के कारण भारत में रुग्णता लागत हर साल जीडीपी के लगभग 3.6 प्रतिशत तक बढ़ती जा रही है। इस रिपोर्ट में अशुद्ध हवा और जल की वजह से देश में हर साल आठ लाख लोगों की मौत होने की आशंका पर भी चर्चा की गई। एक अन्य अनुमान के तहत ‘ब्रिटेन में जलवायु परिवर्तन के अर्थशास्त्र पर स्टर्न समीक्षा’ में वर्ष 2007 में इस बात का उल्लेख किया गया था कि जलवायु परिवर्तन वर्ष 2100 तक भारत में जीडीपी के 9 से 13 प्रतिशत तक का लागत बोझ थोपेगा।
‘दहाई अंकों वाली जीडीपी वृद्धि दर’ हासिल करने का जुनून भारत की जैव विविधता और इसके दीर्घकालिक आर्थिक विकास के लिए एक बड़ा खतरा है। उदाहरण के लिए, भारत में कुल भौगोलिक क्षेत्र के लगभग 4.9 प्रतिशत को कवर करने वाला ‘संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क’ होने के बावजूद उसे प्राकृतिक वास और जैव विविधता के नुकसान से मिल रही कड़ी चुनौती का निरंतर सामना करना पड़ रहा है। इसका सीधे जैव विविधता पर आधारित आजीविकाओं पर गंभीर असर पड़ता है (सुखदेव और बेल, 2012)।
भारत में 380 मिलियन गरीबों में से लगभग आधे लोग अपनी दैनिक आजीविका के लिए इन्हीं प्राकृतिक वास या परिवेश पर निर्भर हैं। भारत के ग्रामीण गरीबों की जीडीपी का लगभग 47 प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों जैसे कि वन उपज की कटाई, जंगल से औषधीय जड़ी-बूटी इकट्ठा करने और मत्स्य पालन से ही हासिल होता है (चौहान, 2012)। ये लोग आजीविका के हाशिए पर टिक कर किसी तरह से गुजर-बसर कर रहे हैं और जैव विविधता में कमी होने पर ये लोग ही सबसे अधिक प्रभावित होंगे। अत: ‘गरीबों की जीडीपी’ के जरिए ग्रामीण आजीविकाओं में प्राकृतिक संसाधनों एवं पारिस्थितिकीय सेवाओं के योगदान को पहचानना और उन्हें समुचित अहमियत देना अत्यंत जरूरी है। इस विशेष धारणा में उन सभी क्षेत्रों (सेक्टर) को शामिल किया गया है, जिनसे गरीब अपनी आजीविका और रोजगार सीधे तौर पर हासिल करते हैं। यदि भारत समावेशी विकास प्रक्रिया या ‘गरीब-अनुकूल’ विकास का लक्ष्य हासिल करना चाहता है तो इस तरह का आकलन और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है।
यदि भारत वास्तविक आर्थिक विकास के साथ-साथ इसमें अपनी समग्र संपदा के योगदान का भी लेखा-जोखा रखना चाहता है तो ‘ग्रीन जीडीपी’ निश्चित तौर पर भारत के लिए एक तार्किक अग्रगामी कदम है। जीडीपी के मौजूदा अनुमानों में बढ़ती आर्थिक गतिविधियों के साथ प्राकृतिक पूंजी में होने वाली बढ़त/नुकसान को समायोजित नहीं किया जाता है। वैसे तो आर्थिक गतिविधियां बढ़ने पर जीडीपी के आंकड़े बेहतर हो जाएंगे, लेकिन इसके साथ ही आगे चलकर मानव कल्याण के साथ-साथ प्रकृति पर भी इसका असर जरूर पड़ेगा। अत: ‘व्यापक आर्थिक विकास की व्यवस्था’ के बजाय ‘प्राकृतिक संसाधनों का समुचित उपयोग एवं संरक्षण करने वाली आर्थिक विकास प्रणाली’ को अपनाने से भारत को सतत विकास और लोगों की ज्यादा भलाई सुनिश्चित करने के साथ-साथ समावेशी विकास करने के भी लक्ष्य को पाने में मदद मिल सकती है।
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